वीर दुर्गादास राठौड़ की माता का इतिहास

नेतकंवर भटियाणी का पूर्ण जीवन दर्शन प्रस्तुत करने से पूर्व  चार सतियोँ का वर्णन करना आवश्यक समझता हूं।प्रथम सती मदालसा थी जिसने प्रथम कई सन्तानों को गर्भ मैं ही ब्रह्मयोग की दीक्षा से दीक्षित कर ही जन्म दिया। वे सन्तानें होश संभालते ही तपश्चर्या हेतु वन गमन किया और बहुत बड़े ब्राह्मदेवता बने। राजा स्वयं व प्रजाजन इस बात से दुखी थे कि इस प्रकार सभी संन्तानें  सन्यास मार्ग को अपनायेगी तो शासक का भार कौन संभालेगा। इस पर सभी प्रजाजनों ने उन्हे उत्तराधिकारी राजा बनने वाली संतान हेतु विनय की तो अंतिम संतान योग्य शासक कि समसत उपलब्धियों  लिए हुए पैदा हुआ और शासक बना दूसरा उदाहरण सुभद्रा का है जिसने अभिमन्यु को युद्ध की समस्त विभीषिकाओं से गर्भ में अवगत करा कर ही जन्म दिया तीसरा उदाहरण विषम और प्रतिकूल परिस्थितियों में संघर्ष करने हेतु शिवाजी को तैयार करने माता जीजाबाई का समरण बड़े आदर से हर भारतीय करता है ।चौथी कुन्दन कंवर तंवरजी अपनी आन बान से जाने वाली मावण्ड की राजकुमारी थी गुढा ठाकुर जगरामसिंह से विवाहित थी ।पति से अनबन होने पर अपने पीहर गई व पुत्र शार्दुल सिंह को इतना जबरदस्त सौष्ठव  शरीर वाला वीर बुद्धि चातुर्य से प्रवीण किया कि अपने ठिकाने से अपेक्षित एवं निर्वासित राजकुमारी एक दिन झुंझुनू का अधिपति बना।  एक मां ही ऐसी शख्सियत होती है जो पुत्र से असंभव दिखने वाले कार्य को सम्भव करने की प्रेरणा लेकर अंजाम तक पहुंचा देती है।

वर्ष 1634 में सिंध के बलुचियों ने फलोदी पर आक्रमण कर अतिक्रमण कर लिया था उन्हें खदेड़ने के लिए महाराजा जसवंत सिंह जोधपुर ने आसकरण राठौड़ को सेना  देकर भेजा आसकरण जी ने अदम्य साहस दिखाते हुए आक्रमण कर बलुचियों को वापिस सिंध भाग जाने को विवश कर विजय प्राप्त की फलौदी से आते समय आसकरण अपने ससुराल जेमला गांव में रुक गए ।जंवाई का विजय अभियान पर बड़ा स्वागत-सत्कार किया गया सुबह का समय था कोट के आगे चबूतरों पर बैठे गांव के गणमान्य पुरुष अमल की मनुहारें कर रहे थे।
हुक्कों की गड़गड़ाहट बदस्तूर जारी थी । इतने में ही आसकरण की दूर से पानी लाती है एक नव योवना पर नजर पड़ी जिस के मार्ग में दो भैंसे  से लड़ रहे थे।उस सौष्ठव बलिष्ठ भुजाओं वाली बाला ने दोनों भैंसों के सींग पकड़ कर अलग करते हुए बीच से राह बनाकर अपने घर की राह ली । आश करण के पूछे जाने पर की "यह डावड़ी किणरी बेटी है?"उपस्थित भाटी सरदारों ने भगवानदास रूपसिंगोत केलणोत भाटी की पुत्री बतलाया ।आसकरण के मन मस्तिक में एक विचार कौंध गया की जब यह बाला इतनी बलिष्ठ हैं तो इससे होने वाली संतान बहुत ही बड़ी बलवान होगी यह विचार कर भाटी सरदारों के समक्ष नेतकंवर का विवाह उनसे करने का प्रस्ताव रख दिया आसकरण करणोत के इससे पूर्व 2 विवाह हो चुके थे एक विवाह सिसौदिया के दूसरा नेतकंवर की भुवासा लालकंवर से हुआ था । लालकंवर का विवाह 9-10 साल पूर्व ही हुआ था कि इस विजय अभियान के दौरान नेतकंवर से तीसरा विवाह सम्पन्न हो गया । जिन्दगी बड़े हर्षोउल्लास से गुजर रही थी ।इसी दरमियान दिनांक 13 अगस्त सन 1638 में नेतकंवर के गर्भ से एक बालक का जन्म हुआ भारतीय पंचांगनुसार श्रावण शुक्ल चौदस  सोमवार संवत 1695 को जन्म हुआ।  बालक का नाम दुर्गादास रखा गया। कुल पंडितों के भविष्य दर्शन टिप्पणी के अनुसार बड़ा भाग्यवान और संघर्षशील व्यक्तित्व के धनी बताया। विद्वानों ने सही कहा है कि सुसंस्कारित भाग्यवान बाला के इस प्रकार के होनहार बालकों का जन्म होता है। कौशल्या के गर्भ से ही राम जैसे मर्यादा पुरुषोत्तम का जन्म हो सकता था। हर नारी में वह नूर कहां जो राम जैसे पुत्र को जन्म दे सके। संसार में जितने भी महापुरुष हुए हैंउनकी माताओं की महानता स्वयं सिध्द ही प्रतिपादित है । कर्म प्रधान युग में एक कवि की कविता का आखिरी अंश है
      "अपनी करणी कर होत बड़ो
    पितु वंश बड़ो तो कहा कर है ।"

मेरी इस पर अवधारणा है की करणी उन्ही  की महान होती हैं जिनकों ममतामयी  मां से  सुसंस्कार व सद्गुण सहज ही प्राप्त होता है।
दुर्गा दास के जीवन चरित्र पर अनेक कवियों ने कलम चलाकर साहित्य सर्जन कर अपने आपको धन्य  माना एवं सत्ताईस लेखको ने जीवन चरित्र का वर्णन कर पाठकों को उस संघर्षशील एवं सही अर्थों में राजपूत का चरित्र दर्शाकर साहित्य को धन्य कर दिया ।लेकिन किसी ने इस ओर इतना व्रहद् इतिहास  पर जोर नहीं दिया कि जो जो दुर्गादास में विशेषता थी उन समस्त गुणों का दुर्गा दास के जीवन में पौधा अंकरण कर पुष्पित पल्लवित होने तक एवं द्रढ़ विचारों को परिपक्व होने तक संचरण किया वो नेतकंवर भटियाणी ही थी ।
आन-बान की धनी नेतकंवर अपने मर्यादित एवं द्रढ़ संकल्पितजिवन में अन्य  किसी विचार से समझौता करने वाले ने होने के कारण अपनी दो सोतन स्त्रियों व पति से अनबन होने के कारण आसकरण की जागीर का गांव लूणवा जो सार्वजनिक से चार कोस की दूरी पर था नेतकंवर व दुर्गादास को रहने का स्थान निश्चित कर दिया था नेतकंवर अब अपने निर्वासित कुमार को लेकर लूणवा  में आकर रहने व कृषि कार्य करवा कर अपना गुजारा बसेरा का संघर्षमय जीवन आरंभ किया था प्रजा के सभी जन अपने राजा में ईश्वर का रूप देखते थे और राजा भी अपनी रियाया को पुत्र व्यवहार से पालन पोषण हुए संरक्षण करता था आसकरण स्वयं भी उसी राजा के राज्य के दीवाने थे अतः स्वामी भक्ति के गुण रक्त की तासीर से भी मिले  एवं माता की सिखलाई ने राजा के प्रति समर्पण का भाव भर दिया की राईके द्वारा ऊंटानियां धोले ढुण्डे वाले की बताई तो अपने राज्य के गढ का धोला ढुण्डा सुनना गवारा न हुआ और सिर कलम कर दिया यह उनकी स्वामी भक्ति की चरम कोटि की स्थिति थी । इस भाव को जीवन भर बनाए रखा यहां तक कि उज्जैन में अपने जीवन केअन्तिम क्षणों मै भी बादल उमड़ -घुमड़ कर आते तो वे बादलों से यही कामना करते थे कि हे बादल मेरे मारवाड़ में जाकर बरस । इस भाव की संचारिका मां नेतकंवर ही तो थी ।
आश्विन का शुक्ल पक्ष चल रहा था । आसकरण अपना तलवारों की दशहरे पर बानी  (राख) एवं आंकड़े की गीली तडियों से सफाई कर रहे थे । मां नेतकंवर पास में बैठी पंखा झल रही थी। बच्चों के साथ दुर्गादास भी खेल रहे थे । इतने में ही  दो सांड लड़ते हुए उधर आ गये, सभी बच्चे डरते हुए भाग छोटे किंतु दुर्गादास से लड़ते हुए सांड  का कान पकड़ लिया तो सांडों ने लड़ना बंद कर दुर्गादास की ओर दौड़ा। दुर्गादास कहां रहने वाला था। दौड़कर अपनी मां की गोद में जा बैठा । मां द्वारा हांफने  का कारण पूछा तो सारा वृत्तांत सांड का कान पकड़ने का बताया। इस पर मां के आंसू आ गए पुत्र द्वारा आंसुओं का कारण पूछा तो मां ने कहा "तू दौड़ मै  बहुत तेज है इस कारण आंसू आ गए कहीं रणभूमि में पीठ दिखाकर ना दौड़ आये और   मेरे दूध को न लजादे।"  माता का यह शब्द सुन पास में पड़ी पिता की तलवार पैर पर दे मारी और माता से कहा यह तेरी काट देता हूं ताकि दौड़ने की आप की आशंका सदेव सदेव के लिए खत्म हो जाए तथा  आपका दूध पीने लजा  सकूं । माता पिता ने पैर का समुचित इलाज जर्रे से करवाया। 1 दिन की सीख से जिवन भर  माँ नेतकंवर के दुध को उज्ज्वल कर दिया ।

मां ने बात करना पक्का बना दिया कि एक बात जीवन की कसौटी बन गई और हर क्षण कसौटी पर खरा उतरने को आमादा रहे ।शिकार के दौरान दुर्गादास को पेड़ की छांव में नींद आ गई ज्योंही सुर्य ढला मुंह पर धुप आ गई । महाराजा जसवंत सिंह ने अपनी शेरवानी  पल्ले से दुर्गा दास के मुख पर छाया की तो उनके सिपहसालार कहने लगे अन्नदाता इस अदने  से नोकर पर आपने क्यों छाया कि महाराजा ने फरमाया "मैं तो एक दुर्गादास पर ही  छाया कर रहा हूं ये कल पूरी  मारवाड़ पर छाया करेगा।" और दुर्गादास नाम किस बात पर खरा उतर कर एक राजपूत के उदात्त चरित्र का परिचय दिया। जीवन भर संघर्ष कर जब जोधपुर का राज्य मुगलों से मुक्त करवाया  तो दुर्गादास ने मेहरानगढ के कगुरों पर जमी धूल को अपनी पगड़ी के पल्ले से पोंछ कर मारवाड़ के जर्रे -जर्रे से प्यार सबूत दिया जो माँ नेतकंवर ने अनपढ़  पत्थर को तराश कर दुर्गादास बना दिया जो ने केवल मारवाड़ का अपितु समस्त हिन्दू जाती एवं समूचे राष्ट्र का सपूत बनकर आने वाली पीढ़ियों को छात्र धर्म का पाठ पढ़ा गया।
माता ने इस उपेक्षित कुमार को अपना स्वयं का तथा गो माताओं का दूध पिला पिला कर इतना सबल बना  दिया कि एक बार मुगल बादशाह औरंगजेब ने नो इक्को (पहलवानों) को दुर्गादास को मारने के लिए भेजे । दुर्गादास उस समय घोड़े पर चढे हुये भाले से अंगारों में बाटी सेक रहे थे ।इक्कों द्वारा ललकारने पर दुर्गादास ने कहा सब लड़ोगे या एक एक ।उनमे से एक ने कहा हम मै से एक ही तुम्हारे लिए बहुत है । दुर्गादास ने बाटी खाई,  छागल  का पानी पीकर खंखारा कर इक्कों पर टूट पड़े आठ को यमपुर पहुंचा दिया । आखिरी एक बचा उसके कान काट कर बादशाह को समाचार सुनाने हेतू भेज दिया । ये पुष्टता मां नेतकंवर के दुध की ही थी ।

गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने एक जगह लिखा है कि राजपूतों के समस्त गुण यदि एक ही व्यक्ति में देखना चाहो तो वह चरित्र दुर्गादास राठौर ही है । ये नेतकंवर भटियाणी का लाल जन जन की वाणी पर यह बात छोड़ गया जो कवि ने कहा था, 
        डबक डबक ढोल बाजे
           देदे ताल नगारा पर ।
        आसे घर दुर्गो नही हो तो
          सुन्नत होती सारां की ।

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