पुष्कर युद्ध में मेड़तिया राठौड़ राजसिंहजी का बलिदान


मुगल बादशाह औरंगज़ेब के समय शाही आज्ञानुसार मारवाड़ मै जब मुग़ल सैनिको द्वारा मंदिर एवं देवस्थानों ध्वस्त किये जाने लगे तब रियाँ ठाकुर प्रताप सिंह जी के पुत्र राजसिंह मेड़तिया ने प्रतिज्ञा ली की जब तक मारवाड़ मै स्थित सब मस्जिदों को तोड़कर मुगलों को मार मार कर न भगाऊंगा तब तक पलंग पर सोना छोड़ धरती पर लेटूँगा तथा अन्न का त्याग कर केवल दुग्धपान करूँगा।

अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करने हेतु राजसिंहजी ने अपने पिता प्रतापसिंह एवं बाघ सिंह चांदावत व अन्य मेड़तियों के साथ मेड़ता के लिए प्रस्थान किया। वहा मुग़ल फौजदार सार्दुल खाँ नियुक्त था । मेड़तिया राठौड़ों ने मालकोट का घेराव किया पर अंदर प्रवेश की राह नहीं निकली । तब जयसिंह चांदावत व मेड़तियो ने कोट के मुख्य द्वार पर कांटो एवं ईंधन की सहायता से आग लगा दी जिससे कोट के दरवाजे जल गए । कोट के अंदर प्रवेश कर सार्दुल खाँ को कैद कर लिया । तत्पश्चात राजसिंह जी आदि मेड़तिया राठोड़ो ने मेड़ता में भ्रमण कर वह स्थित मस्जिदों को नष्ट किया व मुगलो को मार भगाया । इस तरह मेड़तिया राठौड़ों ने अगस्त 1679 में मुगलों को मेड़ता से खदेड़कर वह अपना अधिकार जमा लिया ।
औरंगजेब को जब यह विदित हुआ की शाही अधिकारियों को निष्कासित कर न केवल जोधपुर अपितु मेड़ता सिवाना पर भी राठौड़ो ने अधिकार कर लिया है, तो वह चिंतित हुआ । उसने जोधपुर पुनः हस्तगत करने हेतु सरबुलन्द खाँ के नेतृत्व में एक विशाल सेना गठित की । इधर अजमेर के सूबेदार तहब्बर खाँ को जब यह समाचार मिला तो उसने ससैन्य पुष्कर की और प्रस्तगं किया । राज सिंह राठौड़ मेड़ता से आलनियावास आये । मेडतिया व उदावत राठौड़ो ने परस्पर विचार-विमर्श कर तहब्बर खाँ का रास्ता रोककर पुष्कर को बचाने का निश्चय किया । राठौड़ आलनियावास में एकत्रित हुए और पुष्कर के लिए प्रस्थान किया ।
इतिहासकार बांकीदास के अनुसार राजसिंहजी आलनियावास से रथ में बैठकर अपने भाई बधुओं के साथ पुष्कर की और युध्द करने हेतु चले ।  उदावत राठौड़ों ने अनुरोध किया की है सब राठौड़ अश्वारुढ़ है  अकेले आपको रथ मै बैठना शोभा नहीं देता । आप भी घोड़े पर सवार होवे इससे हम सब राठौड़ों की गरिमा बनी रहेगी । राजसिंह ने उदावतों से निवेदन किया की में उदर रोग से पीड़ित हूँ अतः मेरा अश्वारुढ़ होना कष्टकर है । इस पर उदावत राठौड़ों ने मेड़तिया राठौड़ों का साथ छोड़ दिया । अंततः राजसिंह रथ से उतरकर घोड़े पर आरूढ़ हुए एवं कहा '' तुर्को को ख़त्म कर अपने स्वामी महाराज अजीतसिंहजी के लिए मस्तस्क चढाने का शुभ अवसर पुष्करराज ने मुझे एवं मेरे भाइयों को ही दिया है । पुष्करराज ! मेरी प्रबल इच्छा है है आपके पवित्र जल के दर्शन कर इसकी पवित्रता की रक्षा हेतु प्राण उत्सर्ग करू ।''
मेड़तिया राठौड़ वाहिनी पुष्कर पहुंची एवं 21 अगस्त 1679 को पुष्कर के बारह जी के मंदिर के आगे शत्रु सेना से मुकाबला किया तीन रोज तक घमासान युद्ध हुआ । तीरों बंदूकों से लड़ते लड़ते तलवार, बर्छो एवं कटारी की नौबत आ गई और दोनों तरफ लाशों के ढेर लग गए । मेड़तिया राठौडौ़ ने इस युद्ध में अद्भुत वीरता का परिचय दिया एवं शत्रुओ का संहार करते हुए पुष्करराज की रक्षा की ।

इस युद्ध में राजसिंह पुत्र प्रतापसिंहजी; राठौड़ अचलदास ; राठौड़ गोकुलदासजी पुत्र प्रतापसिंहजी; रूपसिंहजी पुत्र प्रतापसिंहजी ; रामसिंहजी; हिम्मतसिंहजी; उर्फ़ अरीसिंहजी (प्रताप सिंहजी के पौत्र व गोकुलदासजी के पुत्र, इनके वंशजो को  नैणियाँ  ठिकाना जागीर में मिला) सुन्दरदासजी , जगतसिंहजी पुत्र रामचन्द्रसिंहजी ; चतुर सिंहजी (जगतसिंह के भाई) ; केशरी सिंह आदि प्रमुख राठौड़ो ने वीरगति पायी ।

                         : दोहा :

  राजड़, अचलो, गोकलो, रूपो, सरसर ढाल।
  रामो ,हिम्मतो, सुन्दरो, बलबत जोधा बाल।।

एक अन्य दोहे में राजसिंहजी का महत्व बताया गया है-

सूजा जिसो नहीं कोई शेखो।
राजड़ जिसो नहीं कोई राठौड़।।

Comments