वीरमदेव मेड़तिया Viramdev Mertiya

वीरमदेव मेड़तिया- राव दुदा के बाद उनका पुुुुत्र वीरमदेव मेड़तिया मेड़ता का शासक बना। 17 मार्च सन् 1527 ई. को राणा सांगा और बाबर के बीच खानवा के युद्ध में मेड़ता के राव वीरमदेव के साथ उसके भाई रायमल तथा रतनसिंह सहित 5000 सैनिकों ने इस युद्ध में भाग लिया। राणा सांगा युद्ध में अचेतन हो गए थे तथा वीरमदेव उस युद्ध में घायल हो गए थे। रायमल तथा रतनसिंह मुगल सेना का संहार करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। इसी रतनसिंह की एक मात्र सन्तान मीरांबाई थी। वीरमदेव ने दो बार राणा सांगा के पक्ष में युद्ध में भाग लिया। 
गुजरात के बादशाह के सेनापति शमशेरुलमुल्क को वीरमदेवजी के हाथों पराजित होकर भागना पड़ा। यह युद्ध आलनियावास में हुआ था। वीरमदेवजी ने ई. 1535 में अजमेर पर आक्रमण कर उसे अपने अधिकार में ले लिया। राव मालदेवजी ने पाटवी के नाते अजमेर की मांग की किन्तु वीरमदेवजी ने मना कर दिया। इस पर मालदेवजी ने मेड़ता पर आक्रमण कर दिया। वीरमदेवजी अपने सरदारों के कहने पर अजमेर चले गए और मेड़ता पर 1536 ई. में मालदेवजी का अधिकार हो गया इसके बाद मालदेवजी ने अजमेर भी छीन लिया और वीरमदेवजी डीडवाना चले गए। मालदेवजी की सेना ने वीरमदेवजी का पीछा करने पर वीरमदेवजी नाण [अमरसर शेखावाटी] पहुंचकर राव रायमलजी शेखावत के पास साल भर रहे। इसके बाद वीरमदेवजी ने ई. 1537 में चाटसू पर अधिकार कर लिया वहां से मालदेवजी की सेना द्वारा पीछा करने पर वीरमदेवजी  क्रमश: लालसोट व बंवाली मौजाबाद चले गए। जैताजी  और कुंपाजी  बिना युद्ध किए ही बंबाली से वापस जोधपुर लौट आए। वीरमदेवजी मेड़ता पर पुनः अधिकार करना चाहता था। मालदेवजी ने बीकानेर के राव जैतसिंह को भी खत्म कर बीकानेर पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया था। जैतसिंह का पुत्र कल्याणमलजी सिरसा में रहन लगा। उसका मन्त्री नगराज शेरशाह सूरी की सेवा में गया। दूसरी ओर वीरमदेवजी भी रणथम्भौर के नवाब की मदद से शेरशाह के पास पहुंचे दोनों ने मालदेव पर चढ़ाई करने के लिए शेरशाह को तैयार कर लिया।
शेरशाह अपनी विशाल सेना लेकर कर राव मालदेवजी  के साथ युद्ध के लिए तैयार होगया । राव वीरमदेवजी और राव कल्याणमलजी भी उसके साथ थे। यह सूचना मिलने पर मालदेवजी भी अपने प्रसिद्ध सेना नायक जैताजी, कूंपाजी, अखैराजजी सोनगरा, जैसाजी चांपावत सहित सामने आ डटे। किन्तु दोनों ही पक्ष युद्ध की भयावहता से भयभीत हो एक माह तक आमने-सामने पड़ाव डाले पडे रहे। तब वीरमदेवजी ने छल की नीति अपनायी और मालदेवजी के सरदारों को सस्ती कीमत में ढ़ालें बिकवाने की योजना बनाई और उनकी गद्दियों में जालीपत्र व मोहरें भरवा दी और इसकी जानकारी मालदेवजी तक पहुंचा दी गई कि आपके सरदारों को बादशाह ने अशर्फियों से खरीद लिया है। मालेदवजी ने जांच की तो अपने सरदारों पर सन्देह हो गया। वीरमदेवजी की इस कार्यवाही का किसी भी सरदार को पता नहीं चला। विस्वस्त सरदारों को बिना बताए ही मालदेवजी एक रात्रि को अन्धेरे में रणक्षेत्र से वापस लौट गया और 
मालदेवजी के साथ उनकी अधिकांश सेना भी चली गई मात्र 10 हजार सैनिक सहित जैताजी और कूपाजी बचे थे। सुमेल के इस ऐतिहासिक युद्ध में वीरवर जैताजी,कूंपाजी, अखैराजजी सोनगरा आदि अन्तिम समय तक लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हए। इस युद्ध में राजपूत सेना की बहादुरी व आक्रमण क्षमता को देख शेरशाह के मुंह से स्वयं ही ये शब्द निकले 'एक मुट्ठी बाजरे के लिए हिन्दुस्तान की बादशाही खो देता'। इस लोमहर्षक युद्ध के बाद वीरमदेव को मेड़ता पुनः प्राप्त हुआ हो गया।छ: वर्ष के संघर्ष के बाद मेड़ता पर वीरमदेव का अधिकार हुआ। मेड़ता के आस-पास के सभी ठिकानों पर मेड़तिया राठौड़ों ने पुनः अधिकार कर लिया। मेड़ता व बीकानेर के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित हो गए किन्तु मालदेव व मेड़तिया राठौड़ों के बीच पड़ी दरार ने भविष्य मे बड़ा रूप ले लिया। राठौड़ शक्ति दो भागों में विभक्त हो गई। एक ओर जोधपुर के शासक व उसके सामन्त तो दूसरी ओर मेड़ता व बीकानेर जिसका लाभ शत्रु को मिलना स्वाभाविक ही था। राव वीरमदेवजी की मृत्यु 66 वर्ष की आयु में फरवरी सन् 1544 में हुयी । मीरां बाई ने प्रसन्न होकर अपने भतीजे जयमलजी को दो वरदान प्रदान किये थे, 
''बाणो बधे तेरो परिवार। 
होवे नहीं समर में हार''।। 

ये दोनों वचन आज तक भी प्रत्यक्ष दृष्टि में आते है कि जोधपुर राज्य में चांपावत, कंपावत, वैरावत, उदावत आदि शाखाएं बहुत बड़ी मानी जाती है, परन्तु उनमें सबसे ज्यादा बढ़ोतरी इसी खांप की हुयी है।
राव वीरमदेवजी के तीन पुत्री और ग्यारह पुत्र थे

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